कविता: नहीं, मैं उर्मिला नहीं…

नहीं, मैं उर्मिला नहीं,
जो बिछड़े पति की याद में,
तारे गिन गिन गुमसुम सी हो जाऊँ ।
दिन रात तकूँ उनकी राहें,
कुमुदिनी सी कुम्हला जाऊँ ।
नहीं,मैं मीरा भी नहीं,
पिय हरि में सुध बुध खो बैठूँ,
नाम रटत सब बिसराऊँ ।
आस न हो पल एक मिलन की,
दरस की प्यासी मर जाऊँ ।
नहीं,अहिल्या भी नहीं मैं,
समाज के भय से आतंकित हो,
झूठे दोष को अपनाऊँ ।
सहकर अपमान के घूँट हजारों,
जड़वत् पत्थर हो जाऊँ ।

मैं आधुनिक युग की बाला हूँ,
हैं विचार मेरे कुछ अलग थलग ।
सच है पिय साए नेह बहुत है,
कठिन है रहना होके विलग ।
किन्तु यदि वह छोड़ गया,
होके निष्ठुर तन्हाई में।
छीन मेरे सपनों के मोती ,
जो दुबक गया परछाईं में ।
क्यों उसकी फिर राह तकूँ मैं,
रेत के फिर क्यों महल बनाऊँ ।
पतझड़ में गिरे पीत पात सम,
क्यों न यादों पर धूल उड़ाऊँ ।
क्यों न राह नई चुनूँ मैं,
अपना अस्तित्त्व स्वयं बनाऊँ ।
बनके हारिल गगनांगन में,
उड़ उड़ रंग नए भर आऊँ ।
और विचारों के जुगनूँ सब,
तराश पंक्तिबद्ध बिखराऊँ ।
शब्दों के पुष्प गुच्छ सब चुन चुन,
कलम से अंकुर नव उपजाऊँ ।।
डॉ संज्ञा प्रगाथ
इकौना श्रावस्ती (उ प्र )












