पहाड़ का सावन…

खिल रहा है गुलबहार
बेल लिपट रही है ठांगरे से
खिल रहे हैं फूल-फूल्यड़ पीले- हरे
डलिया फांटौ में सिमट रही है
दूर तक फैले धार-इजरों की हरी घास
घस्यारी गा रही है विरह के गीत दूर कहीं
जंगल में नचाता मदमस्त मोर पांख फैलाये
कहाँ समझता है पीर विरहणी की
घुमड़ते बादलों से भीगता वो पर्वत
फैला है रक्तपिपासु जोंकों का कहर
मेढ़क टरटराते फुदक रहे हैं हर तरफ
ज्योँ माननीय कर रहे हो चुनाव प्रचार
गनेल की तरह व्यवस्थापक- संचालक
लिपट रहे हैं हरे- हरे पात पतेलों पर
मच्छरों के साथ हो रहा खूनी संघर्ष
झिंगुर तोड़ रहा सन्नाटा बोझिल रातों का

उफनती नदियों का वेग मचा रहा हाहाकार
गाड़-गधेरों की भी कम नहीं रफ्तार
बह रही है मिट्टी खेतों-सेरों- स्यारों से
चटक रही है युगों की निर्मित शैल संरचनाएँ
सरक -दरक रहे ये पहाड़
मलवे के ढेर से पटी है घुमावदार सड़कें
फटते बादलों से आतंकित गावँ- बाखलियाँ
कैसे गाए कोई दीवाना भला इन वादियों में
आया है सावन झूम के यहाँ
खरक -खत्तों की तरफ जा रहे ग्वाले
घट-घराटों में चल रहा है अनाजों का पिसान
शिवालयों में हो रहा पार्थिव पूजन-नमन-वंदन
आ रहे मेले त्योहार चल रहे भजन कीर्तन
आपदाओं विपदाओं से सहमे पहाड़
बनते हैं फिर जीवटता की मिशाल
रोपे जा रहे हैं बाँज-तिलोंज-देवदार
नयी उम्मीद की फूटेगी फिर नयी सीर कोई
निकलेगी फिर कोई नयी गंगा हिमाल से
भगवती प्रसाद जोशी
अल्मोड़ा/नैनीताल, उत्तराखंड












