उत्तराखंड: (रीति-रिवाज)- क्यों मानते है पहाड़ के लोग ईगास, पढिय़े इसकी मान्यता और परंपरा…

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IGAS UTTARAKHAND: उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता है। यहां पग-पग पर देवी-देवताओं का वास है। यहां कई तीज-त्यौहार मनाये जाते है। इन्हीं में से एक त्यौहार है ईगास जो दीपावली के 11 दिन बाद मनाया जाता है। कई लोग इसे ईगास बग्वाल भी कहते है जबकि कुमाऊं में इसे इकैसी का त्योहार करने है। इस बार ईगास पर्व पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की है। आज हम आपको बतायेंगे क्यों और कैसे मनाते है ईगास यानि इकैसी का त्यौहार।

कुमाऊं में इकैसी और गढ़वाली में ईगास

पहाड़ में बग्वाल दीपावली के ठीक 11 दिन बाद ईगास यानी इकैसी मनाने की परंपरा है। माना जाता है कि दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को ईगास बग्वाल नाम दिया गया। यह परंपरा देवभूमि उत्तराखंड में वर्षों से चली आ रही है। इस दौरान भैलो खेलने का रिवाज है जोकि खुशियों को एक-दूसरे के साथ बांटने का माध्यम है। इस दिन रक्षा बंधन पर हाथ पर बंधे रक्षासूत्र को बछड़े की पूंछ पर बांधकर मन्नत पूरी होने के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है।

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क्या है मान्यता

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। जिसके बाद खुशी जाहिर करते हुए ग्रामीणों ने एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया।

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इसलिए कहते है ईगास बग्वाल

हरिबोधनी एकादशी यानी ईगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व की शुरूआत हो जाती है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया। इसे ही ईगास बग्वाल कहा जाता है।

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भैलो खेल की परंपरा

दीपावली के 11वें दिन यानी ईगास के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। रस्सी में चीड़ की लकडिय़ों की छोटी-छोटी गांठ बांधी जाती है। इसके बाद गांव की ऊंची जगह पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकडक़र सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है।

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गोवंश की पूजा

ईगास पर भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवे आदि से आहार तैयार किया जाता है। जिसे परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं।

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जीवन राज (एडिटर इन चीफ)

समाजशास्त्र में मास्टर की डिग्री के साथ (MAJMC) पत्रकारिता और जनसंचार में मास्टर की डिग्री। पत्रकारिता में 15 वर्ष का अनुभव। अमर उजाला, वसुन्धरादीप सांध्य दैनिक में सेवाएं दीं। प्रिंट और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म में समान रूप से पकड़। राजनीतिक और सांस्कृतिक के साथ खोजी खबरों में खास दिलचस्‍पी। पाठकों से भावनात्मक जुड़ाव बनाना उनकी लेखनी की खासियत है। अपने लंबे करियर में उन्होंने ट्रेंडिंग कंटेंट को वायरल बनाने के साथ-साथ राजनीति और उत्तराखंड की संस्कृति पर लिखने में विशेषज्ञता हासिल की है। वह सिर्फ एक कंटेंट क्रिएटर ही नहीं, बल्कि एक ऐसे शख्स हैं जो हमेशा कुछ नया सीखने और ख़ुद को बेहतर बनाने के लिए तत्पर रहते हैं। देश के कई प्रसिद्ध मैगजीनों में कविताएं और कहानियां लिखने के साथ ही वह कुमांऊनी गीतकार भी हैं अभी तक उनके लिखे गीतों को कुमांऊ के कई लोकगायक अपनी आवाज दे चुके है। फुर्सत के समय में उन्हें संगीत सुनना, किताबें पढ़ना और फोटोग्राफी पसंद है। वर्तमान में पहाड़ प्रभात डॉट कॉम न्यूज पोर्टल और पहाड़ प्रभात समाचार पत्र के एडिटर इन चीफ है।