शिक्षिका निशा भास्कर की रचना स्पंदित नारी…

सह सकती है नारी केवल,
जग भर की प्रताड़ना।
सहा नहीं जाता जब कोई,
समझें नारी को निर्जीव वासना।
समर क्षेत्र में मरता केवल,
एक महान योद्धा वीर ।
पर रोज मरा करती है नारी,
लिए अपने अंतर्मन में पीर।

हर काम को करती है केवल,
अपने अतुल्य प्रेम भाव से।
जब मुल्य लगाया जाता है,
दुनियादारी की स्वार्थ से।
रिश्ते हो चाहे ख़ून का
या बंधन हो प्रेम का।
केवल हृदय की सुनती है,
काम नहीं किसी बुद्धि का।
करती है हृदय मंथन तब,
कर बुद्धि को पाले से अलग।
पाती है दुनिया को निर्मम,
हाय! मैं कैसे अलग-थलग।
प्रेम बदल जाता है व्यथा में,
ढलते हैं आंसू नयनों के कोर।
कितने तुम निर्दयी हो ईश्वर!
कैसे कहूं? तुम हो प्रेम विभोर।
बुद्धि से विलग तुम होंगे कैसे?
तुम भी तो हो एक पुरूष।
करुणा तो स्त्री जनित भाव है,
स्वभाव सदा तेरा होगा परुष।
त्याग दिया सीता को क्षण में,
पाकर राजा का सम्मान।
उस प्रेम का क्या गौरव?
जो दिया धर्म व स्नेह से साथ।
बिसरा दिया राधा को तुमने,
रखकर कर्म पथ पर पग अपना।
बन बैठे द्वारका का राजा,
मिला सुख भव्य भूवन भर का।
विरहिन होकर राधा डोली,
पट पहनकर कृष्ण प्रेम का।
रूक्मिणी,भामा बनी पटरानी,
राधा की अरमानों की होली।
हाय देव!ये कैसी है कथा?
प्रेम-प्रेम ही जगत है गाता ।
आता है जब प्रेम की बारी,
फिर दुनिया की रीत बताता।
छली जाती हैं नारी हरदम,
क्या देव-क्या मानुष जन्म।
तरल तरंगिनि की धारा है,
नारी का कोमल हृदय।
निशा भास्कर ( शिक्षिका)
पालम कालोनी,नई दिल्ली














