मेरी गैरखेत यात्रा: परीक्षा नहीं ये बेरोजगारों का रेला था, पढिय़े पत्रकार जीवन राज का दिलचस्प यात्रावृतांत…
यह वर्ष 2012 की बात है। मैंने परीक्षा देने के लिए जाना था, मेरा सेंटर अल्मोड़ा जिले के स्याल्दे विकासखंड में गैरखेत नामक स्थान पर पड़ा था। दूर होने के कारण मैंने शनिवार की रात को ही निकलना उचित समझाा। अत: मैं दफ्तर से घर लौटने के बाद खाना-पीना खाकर रात में लगभग 9 बजे हल्द्वानी बस स्टैड पर खड़ा हो गया। मैंने प्रेस वाली टैक्सी से जाने की सोची थी, इसलिए उसे दिन में ही फोन कर दिया। जब रात में मैंने उसे फोन मिलना तो वह बोला बस अभी आ रहा हूं। हम उसके इंतेजार में बस स्टैड पर डट गए। धीरे-धीरे यहां की भीड़ ने मेले का रूप धारण कर लिया। यह कोई उत्तरायणी या देवीधुरा का मेला नहीं नहीं बल्कि उत्तराखण्ड के बेरोजगारों का मेला था। जो रोजगार की तलाश में भटकते नजर आ रहे थे। यहां उत्तराखंड ने सेंटर ही ऐसे रखे थे मानो जैसे मकड़ी न जाल बुन रखा हो। पूर्व वालों का पश्चिम, उत्तर वालों का दक्षिण दिशा में ऊपर से गाडिय़ों की कोई व्यवस्था नहीं। वाहनों की कमी सेयुवक दर-दर भटके रहे थे।
इसी का फायदा कुछ छुटपुट टैक्सी वाले उठा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों बेरोजगारों ने टैक्सी वालों को रोजगार दे दिया। टैक्सी वाले चांदी क्या, सोना भी काट रहे थे। किराया तो इतने हाई चढ़ गए थे। जैसे मंहगाई न मुंह फेर लिया हो। आप जागेश्वर जाओ या बागेश्वर किराया एक ही था, लेकिन फर्क बस इतना था की आज बागेश्वर के टिकट में जागेश्वर जा सकते थे। अत: जिन लोगों का सेंटर जागेश्वर था, उन्हें बागेश्वर जाने से कोई फायदा नहीं था। टैैक्सी का इंतेजार करते-करते हमें बस स्टेशन पर रात के 10 बजे गए। लगभग साढ़े दस बजे पर टैक्सी वाला आया। वह हमें पहले से ही जानता था। इसलिए ढूढने में भी कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि वह जिस प्रेस से अखबार ले जाता था, उसी के प्रेस के दफ्तर में हम भी काम करते थे। थोड़ी बातचित के बाद मैं गाड़ी में बैठ गया। वह अपनी सवारियां ढूढ़ऩे चले गया। मैं अपने जूते उतार के सीट पर लेट गया। सामने पहाड़ी कैसेटों की दुकान में बजे रहे गाने की धुन जब मेरी कानों में पड़ी तो मैं आश्यर्च चकित रह गया। गाने के बोल थे म्योर दाज्यू ले पढ़ बे लिख बे रे घर पना बेरोजगार रे गों…
यह गाना उन बेरोजगार युवकों के जख्मों पर मिर्च का मरहम लगाने जैसा था। थोड़ी देर में एक महाशय आकर हमारे बगल पर बैठ गऐ। बेचारे पांव से थोड़ा विकलांग थे। वैसे बातें करने में हम भी अपने को तीस मारखां से कम नहीं समझते थे। तो बातों-बातों में उनसे परियच हुआ पता चला कि वह भी वीडियो की परीक्षा देने आये है। वह महाशय टिहरी से आए थे। वो भी इतनी दूर वीडियो बनने के लिए। यहां दिख रहा था उत्तराखंड के विकास का असली चेहरा।
सरकार के खिलाफ जो गुस्सा इनके अंदर भरा था। वह तो देखने लायक था। फिर कभी बेरोजगारी तो कभी मंहगाई की बहस हम दोनों के बीच होती रही। इस बहस के दौरान हम दोनों अपने को संसद में बैठे किसी नेता से कम नहीं समझ रहे थे। धीर-धीरे गाड़ी में सवारी बढ़ती गई, हम लोगों की बहस जारी रही। गाड़ी में पूरी सवारी हो गई, तब तो मंहगाई और बेरोजगारी के मुद्दे रबर के गेंद की तरह ऊपर उछलने लग गए। इस बहस के दौरान गाड़ी ऐसी लग रही थी, मानों संसद भवन हो, ड्राइवर स्पीकर और हम लोग संसद में बैठे नेता। सवारियां पूरी होने के बाद टैक्सी वाला प्रेस की ओर चल दिया अखबार भरने। प्रेस पहुंचकर उसने रोज की भांति गाड़ी बाहर खड़ी कर सवारियों को उतरने का आदेश दिया। असल में आप प्रेस के अन्दर सवारी भर के नहीं जा सकते है।
अखबार भरने के बाद लगभग रात के 2 बजे वह हल्द्वानी से चला। बातों-बातों में और सवारियों से भी परिचय हुआ। लगभग 6 लोग और थे जो परीक्षा देने आए थे। हम लोगों की पूरी रात बस दो ही मुद्दों पर बहस होती रही, पहला मुद्दा बेरोजगारी का दूसरा मंहगाई का। पहाड़ का सफर होने के कारण सभी लोग रात भर जागे रहे। सुबह लगभग 5 बजे गाड़ी रानीखेत पहुंची, तो एक-दो सवारी उतर गई। हमें तो अभी दूर जाना था, अत: हम अपनी सीट पर ही डटे रहे। वैसे भी बाहर निकलने वाला नहीं हो रहा था। ठंड ही इतनी थी। मैंने फाटक का शीश खोलकर बाहर झांकने की कोशिश की, बाहर देखा तो यहंा भी हल्द्वानी जैसा हाल था ,बेरोजेगारों की बेहिसाब भीड़ और उदास चेहरे, उनके कंधे में लटका बैंग,मानों बेरोजगारी का कार्ड हो। ठंड से कपकपाते उनके होंठ मानों ऐसा कर रहा हो अब तो रोजगार दे दो भगवान। आगे बढ़ते-बढ़ते हमें द्वाराहाट में उजाला हो किया। यहां भी वही हाल था, बेरोजगारों की एक लंबी फौज क्रिकेट स्टेडियम की तरह खचाखच भरा पूरा द्वाराहाट बाजार। चारों तरफ पहाडिय़ों से घिरने से ऐसा लग रहा था मानों हम द्वाराहाट नहीं हिमाचल के धर्मशाला क्रिकेट स्टेडियम में खड़े हो। आगे जब हम चौखुटिया पहुंचे तो यहां भी बेरोजगारों का मेला था। आज तो ऐसा लग रहा था पूरे उत्तराखंड में मेला लगा है, वो भी कुंभ से भी बड़ा। इस मेले में आये लोगों के उदास चेहरे देख के बड़ा तरस आ रहा था।
मैं सोचने लगा अगर आज परीक्षा में कोई निबंध आ जाता कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो। इस पर 500 शब्द लिखों। मैं पांच सौ क्या पांच हजार शब्द लिख देता। हकीकत में इन शब्दों में बेरोजगारों को रोजगार दे ही देता। बेरोजगारी पर काफी हद तक अंकुश लगा देता। चलो कम से कम हम सोच ही सकते है। चाहे हम प्रधानमंत्री बने या ना बने अकुंश लगा देता। गनाई पहुंचने के बाद गाड़ी वाले ने मुझसे कहा जाना है। यहां से दूसरी गाड़ी पकड़ लो। गाड़ी से उतरने के बाद पैसे देने लगें पर गाड़ी वाला था, कि पैसे लेने का नाम ही नहीं ले रहा था। बोला नहीं सर आप तो स्टाफ के आदमी है, भला आपसे पैसा कैसे ले लू। काफी कोशिश करने के बाद भी मैं उसे पैसे देने में नाकाम रहा। गनाई में थोड़ा इंतेजार करने के बाद केमू की छोटी बस मिल गई। सभी लोग चढ़ रहे थे। इसलिए एक लंबी कतार में खड़े होकर मैं भी बस में चढ़ गया। उस ठसाठस भीड़ में 25 रूपये टिकट देने के बाद में सीट पर बैठा। नजरें फिराई तो पूरी बस में वही बेरोजगार चेहरे नजर आये। ये सभी लोग चले थे वीडीओ बनने। लगभग आधे घंटे बाद मासी में बस रूकी तो मैं भी उतर गया। यहां से मुझे गैरखेत जाना था, जो शायद ही मैंने कभी नहीं सुना था। रानीखेत सुना ताड़ीखेत सुना लेकिन गैरखेत दूर-दूर तक नहीं सुना था वैसे कभी काम भी नहीं पड़ा था। चलो छोड़ो अब जाना तो वही था।
एक-दो लोग से पूछाताछ की तो पता चला कि लगभग 10 से 12 किलोमीटर था। टैक्सी स्टैड पर जाकर मैंने पूछा भैया गैरखेत चलोंगे। वह एक टक मुझे देखता रहा फिर बोला हां जाऊगां बैठ जाओ। हमारे बोलने से उसे कुछ अलग-सा लगा क्योंकि हम शहरों में टैम्पों और रिक्शे वालों से बोलने के आदी थे। टैक्सी के अंदर बैठते ही मैं बोला भैया चलों तो वह बोला भैया 10 सवारियां पूरी होने दो तभी चलंगे। अब हम इंतेजार में बैठ गए कब दस सवारी पूरी होगीं। धीरे-धीरे उस गाड़ी की तरफ बेरोजगारों की फौज बढऩे लगी। देखते ही देखते लगभग 10 मिनट में पूरी गाड़ी क्या छत तक भर गई। अब दस के बजाय गाड़ी में लगभग 25 सवारियां थी। गाड़ी जब चलने लगी तो एक पल तो हमें लगा, हम चुनाव प्रसार वाली गाड़ी में तो नहीं बैठ गये, तभी परीक्षा का ध्यान आया तो हम बेरोजगारी वाली गाड़ी में सवार थे। गाड़ी में परीक्षा से संबधित कई बाते होती रही। कोई सेंटर को लेकर परेशान था, तो कोई रोल नबंर को। इस परीक्षा में कई लोगों के पास दो-दो अडमिट कार्ड आऐ थे।
कई के पास एडमिट कार्ड होने के बावजूद परीक्षा लिस्ट में दूर-दूर तक उनका नाम नहीं था। अत: गैरखेत पहुंचने के बाद सभी लोग उस स्कूल के सामने उतर गये जिसमें हमने थोड़ी देर बाद परीक्षा देनी थी। अभी परीक्षा में लगभग दो घंटे शेष थे, तो मैं हाथ-मुहं धोने चले गये। दो-तीन युवक तो गाड़ी से उतरने के बाद मेरे साथ ऐसे घुलमिल गये। मानो बचपन के दोस्त हो। वैसे ऊपर वाला ही एक जैसे लागों को मिला ही देता है, वो भी बेरोजगार हम भी बेरोजगार। बाजार से स्कूल काफी दूर गांव में था। इसलिए वहां एकांत दुकानें की थी। अब हम चार लोग एक दुकान में नाश्ता करने चल दिए। दुकानदार काफी बुजुर्ग थे।
मैंने कहां बूबू कुछ खाने को मिलेगा।
तो बूबू का जबाब था हां नाती चाय है समोसे और छोले है, बताओं क्या खओंगे।
मैंने पूछा छोले-समोसे कैसे दे रहे हो
तो बूबू बोले नाती 10 रूपया प्लेट।
मैं बोला बूबू थोड़ा मंहगा लग रहा है।
बूबू बोले नाती 10 रूपये आजकल क्या मिलता है।
मैंने कहा बूबू बात तो आप सही कर रहे हो कि दस रूपये में क्या मिलता है। अब भूख तो लगी ही थी, मैंने बूबू को चार प्लेट छोले का ऑडर दे दिया क्योंंकि हम चार लोग वहां बैठे थे।
बूबू ने चार प्लेट लगाई और हम लोग खाने लगे।
खाते-खाते मुझे मजाक सूजी तो मैंने कहा बूबू, दस रूपये का प्लेट आज हमारे ही लिए है या आम जनता के लिए भी इतना कहते ही बूबू थोड़ा झल्लाकरबोले। नाती ये सबके लिए एक समान है, भला हम तुम्हें क्यों ठगेगें। हम पहाड़ी आदमी बेईमानी वाला काम नहीं करते नाती।
वैसे भी पहाड़ के लोग सीधे-सीधे होते है। छोले-समोसे खाने के बाद हम लोग स्कूल के सामने वाले मैदान पर बैठ गऐ और धूप का आनंद लेने लगे। थोड़ी बहुत परीक्षा की भी बातें होने लगी। खूब हंसी मजाक चलती रही। बातों-बातों एक बोला यार इन परीक्षाओं में पजले से ही सेंटिग रहती है तो उसी बीच दूसरा बोला हम तो वीडिओ क्या ओडियो भी नहीं बन पायेगें। मैने कहा भाई इतनी दूर आकर क्यों हताश हो रहा है। मेहनत कर निकल जायेगा। फिर दो-चार प्रवचन भी सुनायें।
अब पेपर से संबधित बातें होने लगी तो एक बोला जिन लोगों का जुगाड़ होता है, उसी बीच एक युवक बोला भाई इसका भी तोड़ है, मेरे पास हम सभी एक साथ बोले क्या। तो वह बोला कि पेपर में चार के बजाय पांच विकल्प देने चाहिए। चार में कोई एक तो सही होगा ही लेकिन पांचवे विकल्प में लिखा हो अगर आप यह प्रश्न छोड़ते है तो पांचवें पर निशान लगाये। इस प्रकार ब्लैक कापी छोडऩे वाले पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन करेंं क्या, मंत्री भी उनके है संत्री भी। बातचीत के दौरान थोड़ा समय कट गया तो मंैने कहा चलो सीट तो देख आते है, क्योंकि मैं कुछ ज्यादा ही वहमी था कि अगर वहां हमारी सीट नहीं हुई तो, वैसे भी परीक्षा से पहले ऐसी हड़बड़ाहट होती ही है। तो लंबी लिस्ट देखने के बाद एक स्थान पर हमारा भी नंबर दिख गया। तब जाकर थोड़ी मन में शंति हुई। बस थोड़ी देर में पीरक्षा शुरू हो गई। तो निर्देश थे- मोबाइल में पर्स बाहर ही रखे, हमनें भी नियम का पालन किया। अपनी सीट ढूढऩी शुरू की पूरा कमरा छान मारा, कही से कही तक मेरी सीट नजर नहीं आयाी। जब कमरे मेें सभी लोग बैठ गये तो एक सीट छुटी थी सो खाली देखकर हम उसी पर बैठ गये। टेबल पर रोलनबरं देखा तो मेरा ही था, इसलिए अब निश्चित हो गये ये मेरी ही जगह है। कापी और पेपर ह्यथ में आये तो वीडियो बनने के ख्वाब देखने लबे। दो घंटे की परीक्षा में लगभग 80 सवाल हम भी कर के आ ही गये, लेकिन ये पता नहीं था कितन सही है कितने गलत।
परीक्षा खत्म होने के बाद जब सडक़पर आये तो एक ही टैक्सी खड़ी थी। बेरोजगार खड़े थे, लगभग 200 से ऊपर। इस दौरान 20-25 लोग उस टैक्सी में बैठ गऐ। मैं एक जगह खड़ा ये सब देख रहा था। मेरे बगल में दो-चार लडक़े-लड़कियां पेपर मिला रही थे तो मैं सुन रहा था। पेपर मिलते हुए उनसे बोलना शुरू हो गया। इसका उत्तर यें था, उसका उत्तर वो था। इस तरह हम बोलते रहे। इसी बीच मैंने कहा चलो पैदल चलते है, जहां से गाड़ी मिलेगी। वही से बैठ जायेंगे। तो एक-एक करके सभी राजी हो गये। अब हम पांच लोग पैदल चलने लगे। तीन लड़कियों और दो लडक़े। बातों-बातों में एक-दूसरे से परिचय हुआ। कोई बोला मैं रामनगर से हूं तो कोई जसपुर से और कोई हल्द्वानी से। अत: पैदल चलते हुए खूब हंसी मजाक चलती रही। इसी बीच एक जीप आकर चली गई लेकिन हममें से किसी ने उसे रोका तक नहीं, बस चले जा रहे थे मस्ती में।
चलते हुए लगभग एक घंटा हो गया तो सभी लोग एक-दूसरे को कोसने लग गए। क्योंकि आगे के लिए फिर गाड़ी मिलना मुमकिन ही नहीं नामुमकिन था। थकते-हारते जैसे-तैसे सडक़ तक पहुंच गये तो पांच बज चुके थे। गाड़ी के इंतेजार में सडक़ पर और भी लोग खड़े थे। एक-एक करके गाडिय़ा आती रही लेकिन सीट किसी में भी नहीं मिली। अब तो बाजार में धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा। सडक़ के पास ही जागरण चल रहा था, अत: मन बना रात में यही ठहर के सुबह हल्द्वानी निकल जायेगेें। इस बीच दो-तीन लडक़े और मिल गये, कुल मिलाकर हम सात लोग हो गये। अब तो सभी तैयार हो गये कि रातभर जागरण में रहेंगे। सुबह होते ही सब अपने-अपने घरों को निकल जायेंगे। इस दौरान सभी बोले चलो मंदिर चलते है, रोड के किनारे ही भूमिया देव का मंदिर था। सडक़ और गांव के बीच में बसे इस मंदिर का सुंदर दृश्य मन मोह रहा था। हम लोग मंदिर में दर्शन को चले गये।
मंदिर में दर्शन करने के बाद जैसे ही हम लौट रहे थे, तो एक 10-12 साल की लडक़ी आयी, तभी वह बोली चलो भैया सब लोग हमारे घर पर रहोंगे। उसकी बातें सुनकर थोड़ा-अजीब लगा, भला इतनी जल्दी कोई किसी पर कैसे विश्वास कर लेगा, वो भी 21वीं सदी में, ऊपर से अनजान लोग। उस लडक़ी के बार-बार कहने के बाद हम लोगों ने उनके ही यहां रहने का निर्णय लिया। बस थोड़ी दूर पर उनका घर था। घर पहुंचने के बाद उसकी मां से परिचय हुआ। काफी साफ-सुथरा घर था, उन शांति पहाडिय़ों के बीच एक शांत बाजार मासी में। थोड़ी बातचीत के बाद सभी ने जागरण में जाने का निर्णय लिया। भंडारे में खाना खाने के बाद थोड़ी देर में हम दो लोग उनके घर में वापस आ गये। फिर बतियाने लग गये, बातों-बातों में ऐसा लगा, जैसी वह मेरी मां की छोटी बहन हो। उस मासी के बाजार की मौसी थी। उसने बताया कि इससे पहले भी कई लोगों को गाड़ी नहीं मिलने के कारण अपने घर में बुलाकर लायी थी। वैसे भी वह हमारी लिए कोई फरिश्ते से कम नहीं थी। स्वाभाव में भी काफी शांत थी, मासी की मौसी। मौसी ने बताया कि कुछ समय पहले की पति की मृत्यु हो चुकी है। उनके बारे में जानकर काफी दु:ख हुआ। फिर एकटक सोचता रहा कि कैसे पालती होगीं यह अपना परिवार। इस मंहगाई के जमाने मेंं। हम तो भगवान से प्रार्थना के अलावा उसकी कुछ भी मदद नहीं कर सकते थे। सुबह उठने के लिए हम लोगों ने चार बजे का अलार्म सेट कर दिया था। बिस्तरे के अंदर जाने के बाद ऐसी नींद आयी कि पता नहीं चला कब चार बज गए। मोबाइल का अलार्म बोलने लग गया उठो जागो।
एक-एक करके सभी लोग जाग गये। हाथ-मुंह धोने के बाद हम सभी सात के सात लोग तैयार हो गए। थोड़ी देर में वहीं छोटी लडक़ी चाय बनाकर लेकर आयी बोली, भैया चाय पीके ही जाओंगे। चाय पीने के बाद हम लोग बस स्टैंड की तरफ चल दिए। बस स्टैड पर रामनगर जाने वाली बस लगी थी, तो सभी लोग बस में बैठ गए। लेकिन मैं बाहर ही खड़ा रहा, साथियों ने पूछा बाहर क्यों खड़े हो अंदर आओ। मैंने कहा मैं हल्द्वानी वाली बस में जाऊंगा। कहां उल्टा बांट बरेली घुमुगां। पहले रामनगर फिर हल्द्वानी। इसमें अच्छा सीधे हल्द्वानी चले जाऊगां। थोड़ी देर बाद रामनगर वाली बस चली गई तो एक दिन कि साथियों से बिछडऩे का दुख भी हुआ। फिर मैं अपने आप में बड़बड़ाया जिंदगी में कई लोग मिलते है और कई बिछड़ते है।
थोड़ी देर में उसी स्थान पर एक बस आकर रूकी बोर्ड देखते ही में बस में चढ़ गया था। लिखा था रानीखेत हल्द्वानी। अब मेरा मासी से निकलना शुरू हुआ था। आंखों में एक ही तस्वीर नजर आ रही थी, वह चारों तरफ पहाडिय़ों से घिरा हुआ बाजार और उस बाजार में मासी की मौसी जैसे लोग। वाह धन्य हो गया। प्रकृति का इतना सुन्दर मनमोहक रूप देख के। धीरे-धीरे बस आगे बढऩे लगी, मासी बाजार यानी मौसी का घर आंखों से ओझल होने लगा। इस लंबे सफर के दौरान में चुपचाप सीट पर ही नींद का आंनद लेने लगा। जब आंखें खुली तो रानीखेत आ चुका था। गाड़ी वाले चिल्ला रहे थे। हल्द्वानी-हल्द्वानी…
एक-एक करके सवारी बैठने लगी। तभी अचानक हमारे पुराने गुरू जी ने हाथ में बैंग लिए बस के अन्दर प्रवेश किया। मुझे अपने आंखों पर भरोसा नहीं हुआ, वे सीट पर बैठे भी नहीं थे कि मैं तपाक से बोल पड़ा, सर नमस्ते। वो बोले… अरे नमस्ते-नमस्ते बालक… तुम कहा जा रहे हो।
मैं बोला सर वीडियो बनने आया था, कल गाड़ी नहीं मिलने की वजह से वहीं रूक गया।
फिर बोले तो परीक्षा कैसे रही?
मैं बोला सर ठीक ही रही, लेकिन उतनी भी ठीक नहीं रही ।
बोले और क्या चल रहा है काम धंधा?
मैंने कहा सर में हल्द्वानी में एक राष्ट्रीय अखबार में कार्यरत हूॅं।
बोले बहुत अच्छा, कुछ न कुछ करना चाहिए
फिर बोले कितना समय हो गया, बालक घर नहीं गये?
मैं बोला सर यही छह महीने करीबन।
फिर यूं ही बातों-बातों हम लोग अपने अतीत में खो गए पता ही नहीं चला सफर का।
जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था, तब गुरूजी नये-नये हमारे विद्यालय में आऐ थे। उन्हें हमें हिन्दी पढ़ाई थी। इनके पढ़ाने का ढग़ बड़ा गजब का था। आज भी याद है कि जब हमें वे प्रश्रों के उत्तर याद नहीं होने पर कैसे डाटते थे। कभी-कभी तो हाथों में डंडा भी मारते थे, लेकिन फिर भी पढऩे में मजा आता था। आज के समय में अगर कोई टीचर अगर बच्चे को कोई सजा भी देता है तो तुरंत कार्रवाई हो जायेंगी। पता नहीं हमारे देश में कैसे-कैसे कानून आ गए है। तब हम लोग इसे गुरूजी का प्रसाद कहते थे। आज वही प्रसाद गुरूओं के लिए गले की फांस बन गई है।
क्या दिन थे वो भी, कांच की दावत में स्याही, एक फाउन्टेन पेन से लिखना, इस पेन से लिखावट भी इतनी सुन्दर होती थी कि जिन्हें मैं शव्दों में बयां नहीं कर सकता। धीरे-धीरे फांउन्टेन का जमाना गया। उसका स्थान पेंन ने ले लिया अब और दुनियां बदल रही है, कुछ समय बाद पेंन की जगह लैपटॉप होगा। उस समय स्कूल जाने के अलावा हम दूसरा काम भी करते थे। लेकिन कभी भविष्य के बारे में सोचा नहीं था कि हम हिंदी पढ़ते हुए एक राष्ट्रीय हिंदी अखबार में काम करेंगे।
बातचीत आगे बढ़ी तो फिर मैंने अपने और गुरूजनों का हाल-चाल पूछा।
गुरूजी ने एक गहरी सांस भरते हुए कहा बाकि साथ वाले सभी लोगों का रिटायर्ड हो गये है। उनके भी अभी दो साल और बचे है।
वैसे जिस तरह सभी गुरूजन हमें समाज को सुधारने के उपदेश देते थे, शायद ठीक उनके उपदेशों का पालन हमने कर लिया था। इसलिए भगवान ने हमें मीडिया जॉब दी। जिससे हम भी आए दिन कुछ न कुछ लिख के समाज को सुधारने का प्रयास करते रहते है।
फिर बातों-बातों में मंहगाई पर बहस छीड़ गई, गुरूजी बोले आज की मंहगाई ने तो जीना बुराहाल कर दिया और ऊपर से बेरोजगारी। इस स्थिति में गरीब आदमी दो वक्त की रोटी कैसे खायेगा। पहले चार आने का जमाना था, आज एक रूपया तो क्या 100 रूपये में भी पुरी चीज नहीं मिल रही है। बातें करते हुए कब सफर कटा की पता ही न चला। जब हम वीरभट्टी के पास पहुंचे तो बस वाले ने बस साइट में खड़ी कर दी। और बोला खाना-वाना खा लो। गुरू जी बोले जीवन चाय पीते है। मैं तो इस मौके के इंतेजार में था कि कब गुरूजी के साथ कप चाय पीई जाय।
वैसे सच कहूं तो आज हमने गुरूजी के साथ चाय तो क्या पानी तक नहीं पिया था। आज लगभग दस साल बाद ये मौका मिला था। क्योंकि गुरूजी ने हमें आठवीं कक्षा में 2002 में पढ़ाया था। तब से आज 2012 में हम उनके साथ बैठ के चाय पीने वाले थे। बस से बाहर उतरने के बाद मैं सामने नल पर हाथ-मुंह धोने चले गया। फिर चाय की दुकान पर आकर चाय वाले को ऑर्डर देते हुए बोला, भैया दो चाय बना दो, अच्छी सी। उसके बाद मैंने दो प्लेट पकौड़ी बोली तो गुरूजी ने बोले, नहीं जीवन मैं नही लूगंा मेरे व्रत चले है। तो हमने फिर एक ही प्लेट बोल दी। हम दोनों गुरू-चेले चाय का मजा लेने लगे। कितना सुहाना दिन था, यह मेरी जिंदगी का उस गुनगुनी धूप में बैठे हम दोनों अतीत में खोये। चाय की चुस्कियों का मजा ले रहे थे। ऐसा वक्त आज की भागम-भाग भरी जिंदगी में कहा मिलता है।
आज पड़ोसी को पड़ोसी की खबर तक नहीं रहती, पहले जमाने में लोग दिन तो क्या रात में भी घंटों पड़ोसियों के साथ बतियाते रहते थे। उनके दुख-सुख में शामिल होते थे। लेकिन आज तो सुख-दुख में शामिल होना तो दूर की बात है। अगर हमारे पड़ोसी दिन में एक बार झांक भी देते तो उतना हमारे लिए काफी था। चलो आज के दौर में इन बातों में क्या रखा है। चाय-पकौड़ी खाने के बाद हम गुरू-चेले बस की तरफ बढ़ गये और अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए। फिर बस चल दी, अपने गन्तव्य की ओर ऊंची-नीची, टेड़ी-मेड़ी पहाडिय़ों से धीरे-धीरे उतरती हुई मैदान की तरफ यानी हल्द्वानी स्टेशन।
काठगोदाम आते ही शहर में आने का अहसास हो गया। जिस धूप की जरूरत हमें रानीखेत में हो रही थी। वो यहां आकर हमारे लिए गर्मी ला रही थी, फिर भी ज्यादा गर्मी नहीं थी, क्योंकि अक्टूबर का महीना चल रहा था। बस के तिकोनियां चौराहे पर पहुंचते ही मैंने परिचालक से रूकने का आग्रह किया। परिचालक के सीटी बजाते ही चालक ने तिकोनियां चौराहे पर बस रोक दी। फिर हमने गुरूजी की ओर देखते हुए विदाई ली और कहा कभी मौका मिले तो जरूर आइयेगा सर। गुरूजी ने सिर हिलाते हुए हामी भरी। इस तरह गुरूजी से हमने विदाई ली। फिर धीरे-धीरे कदमों से अपने कमरे की ओर निकल पड़ा। यें थी मेरी गैरखेत यात्रा। इस यात्रा के दौरान एक ओर जहां उत्तराखंड के बेरोजगारों का निराश चेहरा देखा, वही दूसरी ओर मासी में प्रकृति के सुंदर मनमोहक रूप और मासी की मौसी जैसी संघर्षशील, मेहनती औरत जो हर दिन अपनी रोजी रोटी के लिए प्रकृति के साथ संघर्ष करती है। वाह धन्य हो गया मैं प्रकृति का यह रूप देखकर… समाप्त।
लेखक पहाड़ प्रभात के संपादक जीवन राज है।