उत्तराखंड: लोकगायक रमेश बाबू की कविता में बयां किया जंगल का दर्द, मैं जल रहा हूं…

Chaokhutiya News: उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध लोकगायक रमेश बाबू गोस्वामी हमेशा ही अपने गीतों से चर्चाओं में रहते है। अपने पिता उत्तराखंड के सुर सम्राट स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी की राह पर चलकर वह उत्तराखंड की लोक संस्कृति का संवारने का काम कर रहे है। गोपुलि गीत से उत्तराखंड के लोकसंगीत में बड़ा नाम कमाने वाले रमेश बाबू गोस्वामी इन दिनों पहाड़ की जंगलों में लग रही आग से चिंचित है। अपने पिता की तरह वह भी हमेश जल, जंगल और जमीन की बातें करते है।
उन्होंने कहा कि आज गर्मी के मौसम में लगातार पहाड़ के जंगलों में आग लग रही है, ऐसे में हर साल लाखों की वनसंपत्ति और जीव-जंतु को क्षति पहुंचती है। उन्होंने सरकार से जंगलों में आग लगाने वाले अराजक तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की, जिससे पहाड़ की सुंदरता बनी रहे और लोग देवभूमि के दर्शनों को दूर-दूर से आये। लोकगायक रमेश बाबू की कलम केवल लोकगीतों को लिखने के लिए ही नहीं चलती बल्कि समय-समय पर अन्य सामाजिक हितों के लिए चलती है, अब उन्होंने कविता के माध्यम से जंगल के जलने का दर्द बंया किया है, जो एक बड़ा संदेश देती है। पढिय़े लोकगायक रमेश बाबू गोस्वामी द्वारा लिखी ये कविता-

जंगल का दर्द
मैं जल रहा हूं मैं जल तप रहा हूं
मैं अपनों के द्वारा जलाया जा रहा हूं ।
मैं खून के आशु पी रहा हूं।
मुझसे तेरा वजूद है ।
मैं हूं तो तू है मैं नहीं तो कुछ नहीं
अभी भी संभल जा मेरा अस्तित्व ना मीठा
मैं अगर ठान लू कहर तेरी जिंदगी में
तो बदल जायेगी तेरी जिंदगी दो पल मे
अभी तो तूने हल्का सा मंजर देख रहा है ।
एक पंछी से फैला जहर तू अभी भोग रहा है
तो सोच मानव अगर हम पेड़ पौधे भी तेरा साथ छोड़ दें।
अपने अंदर शुद्ध हवा की जगह जहर भर दें ।
तो तेरा अस्तित्व मिट जाएगा
कभी मानव भी था धरती पर सोचने पर भगवान भी मजबूर हो जाएगा
अभी भी सोच ले समझ ले इस तरह हमें ना जला
इस खूबसूरत वातावरण को जहर ना बना
एक मंजर से ,एक जहर से
तू अभी भरा नहीं
फिर तो नादानी कर रहा है
मत छेड़ो हमें ।
हमें भी जीने दो ।
इस प्रकृति का स्वरूप हमें भी लेने दो।
हम बदल गए तो तुम बदल जाओगे।
हमारे बिना धरती पर नहीं रह पाओगे।
जागो मानव जागो
इस धरती बचालो
जंगलों में आग ना लगाएं
लेखक रमेश बाबू गोस्वामी












