उत्तराखंडः कैसे एक फौजी की बेटी बनी उत्तराखंड की सुप्रसिद्ध न्योली लोकगायिका, पढ़िये बबीता देवी के संगीत जगत का सफ़र…
उत्तराखंड की संस्कृति और लोकसंगीत को आगे बढ़ाने में लोक कलाकारों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे में पहाड़ प्रभात द्वारा उत्तराखंड के लोककलाकारों के लिए उनके जीवन परिचय को लेकर एक मुहिम चलाई गई है। जिसमें आपको उनके लोकसंगीत से जुड़ने की पूरी जानकारी दी जायेंगी। हमर संस्कृति हमर कलाकार मुहिम में आज हम आपको लोकगायिका बबीता देवी से अवगत कराएँगे। जिसमें हम उनके जन्म से लेकर अभी तक के सफर में बारे में आपको जानकारी देंगे तो आइये जानते है उनके संगीत जगत से जुड़ने के बारे में…
पहाड़ में बीता बबीता देवी का बचपन
न्योली की सुप्रसिद्ध कुमाऊं की लोकगायिका बबीता देवी का जन्म उत्तराखंड के चंपावत जिले के पटन गांव, पोस्ट मूलाकोट, पाटी में 22 मार्च वर्ष 1986 में हुआ। उनके पिता स्व. राजाराम भारतीय सेना में सिपाही थे, जबकि माता उजाला देवी गृहणी है। पिता देशसेवा में होने से मां ने ही घर बच्चों को का ध्यान पहाड़ में रहकर किया। पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर की बबीता देवी को बचपन से ही संगीत में रूचि थी। शायद यह वंशानुगत था। उनके पिता की सुरीली आवाज के भी लोग दीवाने थे। राजाराम वाद्ययंत्रों को बजाने में माहिर थे। साथ ही अपनी आवाज से लोगों का खूब मनोरंजन भी करते थे। जिसे आगे चलकर बबीता देवी ने बखूबी संभाला। दूरस्थ क्षेत्र होने के चलते बबीता देवी ने 5वीं तक की शिक्षा हासिल की। इसके बाद वह घर के कामकाज में मां का हाथ बटाने लगी। यही वो दौर था जब बबीता को अपने अंदर जागे कलाकार के बारे में पता चला। वह जंगलों में घास काटते समय कुमाऊंनी गाने और न्योली गाती रहती थी। धीरे-धीरे समय गुजरता रहा लेकिन बबीता ने गुनगुना नहीं छोड़ा। बबीता देवी अपने नाना स्व. जोगाराम की बड़ी चहेती थी। वह अक्सर नाना के साथ समय बिताया करती और उन्हें न्योली सुनाया करती थी। नाना ने बबीता के हुनर को बचपन में ही पढ़ लिया था। वह हमेशा उसे आगे बढ़ने का आर्शीवाद देते थे। आगे पढ़िये…
शादी के बाद सपनों पर लगे पंख
अब मायके से सपनों को लेकर बबीता देवी पहाड़पानी पो. धारी जिला-नैनीताल अपने ससुराल पहुंची। उनके माता-पिता ने श्री रमेश चन्द्र से उनकी शादी कर दी। इसके बाद बबीता देवी कुमाऊं का द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी में अपने पति रमेश चन्द्र के साथ पहुंची। बबीता देवी बताती है कि ससुराल आने के बाद उन्हें लगा कि शायद ही उत्तराखंड के संगीत से जुड़ने का उनका सपना पूरा हो पायेगा। लेकिन इसी बीच उनके भाई की मुलाकात लोकगायक प्रहलाद मेहरा से हुई। उन्होंने बबीता के गाने से गाने गवाने बात की, तो भाई ने उन्हें ये बात बताई। फिर क्या था उधर पति रमेश चन्द्र ने भी उन्हें आगे बढ़ने में पूरा सहयोग किया। वर्ष 2008 में पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच हीरा नगर में उन्हें पहला मंच मिला। यहीं से उत्तराखंड के संगीत जगत में उनकी शुरूआत हुई। इसके बाद बबीता देवी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब उन्होंने गाने के साथ ही अभिनय में भी कदम रखा। आगे पढ़िये…
कुमाऊंनी गीतों में अभिनय से की शुरूआत
वर्ष 2010 में उन्होंने हास्य कलाकार मंगल सिंह मंगदा के साथ कुमाऊंनी वीडियो गीत सोबनी होसयारा में शानदार अभिनय से सबका दिल जीत लिया। बबीता देवी बताती है कि मंचों में गाने और गीतों में अभिनय तक तो वह पहुंच चुकी थी। लेकिन मन में एक कसक अभी बाकि थी। बचपन में वो गाने का शौक जिसे पूरा करना अभी बाकी था। बस इसी मौके की तलाश थी। यह मौका उन्हें लोकगायक गिरीश भट्ट ने दिया और वर्ष 2012 में लोकगायक शेर सिंह महर के साथ उनका गीत झन जाये भौजी मार्केट में आया। जिसके बबीता देवी की आवाज को लोगों ने सराहा। यही से उनकी गायकी का सिलसिला आगे चल पड़ा, जो आज भी लगातार जारी है। आगे पढ़िये…
न्योली गाकर कमाया बड़ा नाम
बबीता देवी बताती है कि लोकगीत उन्होंने कम ही गाये। बचपन से ही उन्हें उनकी पसंद रही न्योली को उन्होंने प्रमुखता दी। उन्होंने न्योली, झोड़े और चांचरी गाये है। यह कहना कोई अतिशोक्ति नहीं होगी कि बबीता देवी मात्र एक ऐसी गायिका है, जिन्होंने न्योली, झोड़े-चांचरी को आगे बढ़ाया। आज वह सैकड़ों झोड़े-चांचरी और न्योली गा चुकी है। उन्होंने कई कंपनियों के लिए गाने गाये। उनकी न्योली सुनकर लोगों ने काफी सराहना भी की। उन्होंने पहाड़ के जल, जंगल और जमीन जैसे सामाजिक मुद्दों पर अपनी गायकी की। वर्ष 2018 में उन्होंने खुद का यूट्यूब चैनल कुमाऊं की कला के नाम से तैयार किया। जिसके बाद उन्होंने अपनी न्योली, चांचरी-झोड़े इसी चैनल से लोगों तक पहुंचाये। आगे पढ़िये…
झोड़े-चांचरी और न्योली विधा को नई पीढ़ी का पहुंचाने का लक्ष्यः बबीता देवी
वर्तमान में लोकगायिका बबीता देवी हल्द्वानी के हीरानगर में अपने रमेश चन्द्र और तीन पुत्रों सूरज, पवन और नीरज के साथ रहती है। आज के दौर में न्योली, झोड़े और चांचरी कम ही सुनने को मिलते है। लेकिन लोकगायिका बबीता देवी ने अपनी आवाज से उन्हें जिंदा रखा है। वह बताती है कि उनका उद्देश्य पहाड़ की विलुप्त होती संस्कृति को जिंदा रखना है। इसलिए वह झोड़ा, चांचरी और न्यौली को प्रमुखता देती है। आज उत्तराखंड में लगातार लोक कलाकारों की संख्या बढ़ रही है। गीत भी नये दौर के हिसाब से गाये जा रहे है, ऐसे में हमारे उत्तराखंड के पारंपरिक झोड़े, चांचरी और न्योली विलुप्त न हो। इसके लिए वह पूरी कोशिश कर रही है। वह पिछले 15 साल से उत्तराखंड संगीत और संस्कृति को संवारने के लिए काम कर रही है। उनका लक्ष्य युवा पीढ़ी झोड़े-चांचरी और न्योली को पहुंचाया है। जो आगे भी जारी रहेगा। संगीत जगत में सहयोग के लिए उन्होंने लोकगायक प्रहलाद माहरा, लोकगायक गिरीश भट्ट, लोकगायक शेर सिंह महर, हास्य कलाकार मंगल सिंह, पति रमेश चन्द्र, भाई रामप्रकाश, रामदयाल, बहन रमा देवी और दीपा देवी का आभार जताया। आगे पढ़िये…
लोकगायिका बबीता देवी के सुपरहिट गीत…
झन जाये भौजी
सुन रे रामु सुन रे
सवानी कौ बगियो पिरोवा
रंगीलो देवर
मत जाओ पिया
चोरी-चोरी आंखी मिलोछे लोंडा
ओ मेरो चंदना
न्योली
सिंगापुर की साड़ी
धारचूले बाजार
बूबू टनाटन
नोट-यह पूरी जानकारी लोकगायिका बबीता देवी द्वारा बताई गई बातचीत पर आधारित है।