कविता: झड़ उठे पात- पात, खिल उठे गात- गात

झड़ उठे पात पात
खिल उठे गात गात
होने लगा नीड का निर्माण फिर
तम की मोड़ कर चादर भोर ने ली अंगड़ाई
पौ फटी दिवस ने हँसकर सतरंगी किरणे बिखराई
जागी बाल विहंगिनी जो सोई थी पंखों के सुख सपनों में छिपकर
गाने लगी मधुर रागिनी सस्वर
हैरान हूँ यह सोच भला पाया कहां से इसने स्वर
अजब वीणा बज उठी है मन मंदिर में मेरे
नाचने लगी निगौड़ी मेरी पायल
होने लगी जीवन जगती में हलचल फिर
रात के जुगुनू न जाने खो गए कहां
प्रात ने दे कर कहा आओ यहां
देखो नवल कलियों के मुख चूमते मकरंद
पलकें खोली द्रुम दलों ने छा रहा आनंद
तरुवासिनी ने कूक भर दी
हो गई हुंकार फिर
अवनि के आंगन से कोहरे का अब घूंघट उड़ गया
प्यार से मनुहार से धरती का अंचल हिल गया
देवता 33 सभी आशीष देने आ गए
मंजरी से आम के शायद कहीं टकरा गए
प्रीत की अग्नि जली, वे भी सखी बोरा गए
धरती का रंग धानी लगे
क्या बसंत का आगमन है फिर
फागुन है सब फाग गाते
होली के रंग में रंग जाते
अधीर समीर करे क्या पोथी बाँचे
बिना पायल मनवा उड़ उड़ नाचे
चम्पा चमेली जूही गेंदा फूलों ने रंग डारी धरती फिर।।
डॉ संज्ञा प्रगाथ
श्रावस्ती