प्यारा बचपन, मस्ताना बचपन

चाहत चांद को छूने की थी
पर मन तितली पे दीवाना था।
सुबह का पता ना होता था,
शाम का ना ठिकाना था।
सावन में कागज की कश्ती थी
हर एक मौसम मस्ताना था।
बिना वजह के रोते थे,
बिना वजह के हंसना, गुदगुदाना था

बड़े होकर क्या पाया हमने?
वो नटखट बचपन कितना मस्ताना था?
निधि ‘मानसिंह’













