व्यंग्य: 100 रूपये का फटा नोट…
मैंने लिखने का काम लगभग सन 2004 से शुरू किया था। तब मैंने छोटे-छोटे लेख एवं कविताएं लिखना शुरू किया था, या यूं कहे कि पत्रकारिता की दिशा में कलम चलाना सीख ही रहे थे। साल 2008 जुलाई की बात हैं, एक राष्ट्रीय अखबार में रिपोर्टर की पोस्ट निकली थी तो बुधिमानों के इस मेले में मैं भी शामिल हो गया। इसका लिखित टेस्ट देहरादून में हुआ। एक महीने के बाद मुझे उस अखबार के हैड कार्यालय नोयडा जाना था। इसलिए मैं रात को ही निकल गया। सुबह आनंद बिहार बस अड्डे पहुंचने के बाद में मेट्रो से नोएडा चले गया। नोएडा पहुंचने के बाद जो हुआ वह अजब का गजब था। मेट्रों से उतरने के बाद मैंने ऑटो पकड़ा। ऑटों से उतरने के बाद मैंने रिक्शा लेना बेहतर समझा। जैसा कि लोग शहरों में अक्सर करते है तो गांव का होने के नाते मैंने भी शहर का अकड़पन दिखाना शुरू किया। किराया की बात की तो वह बोला बाबूजी 40 रूपये लगेंगे। मैं बोला एक तो बाबू जी बोलता है, ऊपर से किराया 40 रूपये मांगता है।
इतने रूपये में तो हमारे गांव में चार कद्दू आ जायेगें। वह बोला बाबू जी देखिये कितनी मंहगाई हो गयी है। उसके इस मंहगाई के जवाब से मेरा मुहं बंद हो गया तो थोड़ा सोचने के बाद, मैं बोला चलो जाना तो है ही। नोएडा शहर पहुंचने के बाद मैंने देखा कि गांव की तरह एक घर के बाद दूसरा घर नहीं था बल्कि नोएडा शहर सेन्टरों में बंटा था। उस अखबार का कार्यालय भी उन्ही सेन्टरों में से एक सेंटर में था। रिक्शेवाले ने दो-चार सेंटर घुमाने के बाद उस अखबार के कार्यालय के सामने मुझे छोड़ दिया। मैंने रिक्शे वाले को 40 रूपये देने के लिए जेब में हाथ डाला तो खुले पैसे नहीं थे। मेरे पास 100 रूपये का एक फटा नोट था, जो पिछले पांच महीने से कही न चल रहा था। रिक्शे वाले का मिजाज देख के मैंने सोचा आज इस नोट के चलने का दिन आ गया है। मैंने 100 रूपये का फटा नोट उसे पकड़ा दिया तो 100 रूपये का फटा नोट देखकर रिक्शेवाला बोला बाबू जी छुट्टे पैसे नहीं है।
मैं बोला आसपास जाकर देख ले। आस-पास पूछने के बाद वह वापस आ गया, बोला, बाबू जी कही नहीं मिल रहे है। भला मिलते भी कैसे 100 का फटा नोट जो था। सामने चाय वाला खड़ा तो मैंने सोचा चाय पी लेता हूॅ तो फिर हो ही जायेंगे। मैंने चाय वाले के पास जाकर कहां भैया दो चाय बना दीजिए, चाय पीने के बाद जब मैंने उसे 100 रूपये का फटा नोट दिया तो नोट की शक्ल देखकर वह बोला छुट्टे पैसे नहीं है। अब तो कभी अपने पर गुस्सा आ रहा था तो कभी उस रिक्शेवाले पर जिसने सुबह-सुबह मेरा फटा नोट चलाने से मना कर दिया था।
इसी बीच चाय वाला बोला मैंने सुबह नाश्ता नहीं किया है तो मैं सामने ठेले पर पराठे खा आता हूं, छुटे भी हो जायेंगे। आप तब तक एक-एक चाय और पी लो। तो मैं बोला ला भाई पिला दे। इस तरह मैंने उस चायवाले को 20 रूपये एवं रिक्शेवाले को 40 रूपये देने थे। अब इंतेजार सिर्फ छुट्टे पैसों का था। चायवाला पराठे खाने के बाद वापस आया तो बोला, भैया उसके पास भी छुट्टे पैसे नहीं है। अब तो मेरा पारा हाई हो गया। मन कर रहा था उस चायवाले और रिक्शेवाले को वही पटक-पटक के मार दूं। इनकी वजह से मेरा 100 का फटा नोट नहीं चल रहा था।
भाई साहब मरता क्या नहीं करता। इस बार मैं फिर रिक्शेवाले से बोला, चल भाई हम भी पराठे खा आते है। पराठे खाने के बाद मैंने 100 का फटा नोट उस पराठे वाले को पकड़ा दिया तो वह बोला भाई साहब ये नोट नहीं चलेगा। अब तो मेरे 100 रूपये के उस नोट पर गुस्सा आ रहा था, जो अल्मोड़ा से लेकर नोएडा तक चलने का नाम ही नहीं ले रहा था। 100 रूपये का दूसरा नोट देने के बाद उसने मुझे 60 रूपये वापस किये। मैं बोला 40 रूपये कैसे हुए तो उसने कहां दो लोगों के हुए सर। इस तरह मैंने 100 रूपये के नये नोट से पराठे वाले को अपने और रिक्शेवाले के पैसे दिये। अब मेरे पास 60 रूपये थे। जिसमें से मैंने 40 रूपये रिक्शेवाले को और 20 रूपये उस चायवाले को देने थे। उन लोगों को पैसे देने के बाद में मैं अखबार के कार्यालय की तरफ बढ़ गया। उस 100 रूपये के फटे नोट के चक्कर में मेरे 100 रूपये का नया नोट लूट गया।
जीवन राज संपादक, पहाड़ प्रभात