कविता: भीतर से ठंडी छाँव हैं पापा

जैसे हमने पाया था,
वैसे ही पाया आज के पापा,
ऊपर से कड़कती धूप
भीतर से ठंडी छाँव हैं पापा।
आज भी पापा के पास जाकर सुकून मिलता है,
पापा का दिल आज भी हमारी सुनता है।
चोट पहले भी लगती थी तड़प जाते थे पापा
लग गई चोट आज भी मचल उठते हैं पापा।
कांधे पर बिठाकर तब भी प्रसन्न होते थे
पीठ पर बिठाकर आज भी घोड़ा बनते हैं पापा ,
खेल खिलौना बनकर हँसते रहते थे पापा ।
समस्याएं जो भी आईं सुमेरु होते थे पापा ,
आज भी हर मुश्किल में साथ निभाते हैं पापा ।
पापा ने ही दिखाए थे जीवन के अनगिन रंग ,
मिलवाया था दुनिया से देख थी मैं दंग।
उन्होंने सिखाया अपने हित लड़ना ,
धैर्य और साहस से ऊपर चोटी चढ़ना ।
मां थी अगर जमीन, तो आसमान थे पिता ,
बट वृक्ष के समान आज भी तटस्थ हैं पिता।
बस चलता तो हमारे हित नभ से तारे तोड़ लाते ,
बस चलता उनका तो ग़म के बादल कभी न छाते।
आज के पापा भी हारे न
सह गए सब आघातें।
नीलकंठ बन हंँस रहे हैं
खुशियों की धुनी रमाते।।
डॉ संज्ञा प्रगाथ श्रावस्ती यूपी