बड़ी कृतज्ञ हूं मैं शब्दों की…

बड़ी कृतज्ञ हूं मैं शब्दों की
जो नग्न तान्डव करते हैं,
पक्षपात रहित जो अन्तर्मन को झिंझोड़सीना ताने करते हैं मन की ।
जो देख रहे हैं नियति की उदासीनता
और तमाशबीन खामोश समाज,
मरी हुई मानवता के सीने में
उथल पुथल करती संवेदनहीनता ।

इन शब्दों ने ही मजबूर किया
कलम उठा मैं कुछ बोलू
संवेदनहीन हृदयों में
भावनाओं के पट खोलू।
खोलना चाहती हूँ उनके मन के द्वार ,
हमें देखते ही जिनके सीनों में
वसनाओं के कीड़े रेंगते हैं ,
दुम हिलाते कुत्तों की तरह
टपकने लगती है मुख से ललचाती लार ।
अरे!सुनो दुरात्माओं
मेरा भी हृदय है,मन है,
मैं फूल की तरह खिलना चाहती हूँ,
पतंगों की तरह उड़ना चाहती हूँ,
बहारों से मिलना चाहती हूँ,
नजारों को परखना चाहती हूँ,
तुम्हारे साथ कदम से कदम मिलाने की तमन्ना है
फिर मेरे अधखिले बदन को ही
क्यों देना चाहते हो नोच ,
क्यों छीन लेते हो मुझसे
मेरे खिलखिलाने का हक ?
मेरी मासूमियत को रौदनेवाले
मेरे प्रश्नों पर क्यों लग जाते हैं
तुम्हारे विचारों पर मोच ?

डा. संज्ञा
बहराइच उत्तर प्रदेश।














