बदल गया मेरा पहाड़…पढिय़े पत्रकार जीवन राज का सोमेश्वर यात्रा वृतांत

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पहाड़ का नाम आते ही दिमाग में एक अलग सा चित्र बनने लगता है। बड़ी-बड़ी चोटियों का समूह चारों ओर हरियाली, लहराते खेत, चिडिय़ों की चहचहाट, धारे के पानी की कल-कल, आहा कितना सुंदर वह वातावरण लेकिन अब बदल गया मेरा पहाड़। हरियाली तो है लेकिन जंगलों में अब वो पहले वाली बात नहीं, फसलों से लहराते खेतों के बीच बंजर खेत उसकी सुंदरता में चांद पर दाग लगाने का काम कर रहे है। चिडिय़ों की चहचहाट तो है लेकिन इनमें से कई पक्षी गायब है। धारे का पानी अब सुख चुका है। लोग नाममात्र के रह गये है क्योंकि बदल गया मेरा पहाड़ ।

आज शहर में रहकर पहाड़ का अहसास तो होता है लेकिन पहाड़ों में रोजगार का अभाव पहले भी था आज भी है और आने वाले समय में भी रहेगा। हालांकि कुछ लोग अपने पुरखों की जमीन छोडऩा नहीं चाहते है लेकिन कुछ लोगों को अगर सहीं नौकरी मिल जाय तो वह अपना ठिकाना शहरों में बना लेते है। उनमें से एक मैं भी हूँ। आज पहाड़ का अधिकांश युवा होटलों में नौकरी करता हैं, एक समय बाद वह पहाड़ वापस जाता है वहीं आगे जाकर पहाड़ी कहलाता है। बाकि तो सिर्फ बरातों और शुभकार्यों में ही पहाड़ का रूख करते हैं। आज वर्षों बाद पहाड़ को जाने का प्लान था। सुबह ही तैयार होकर हल्द्वानी स्टेशन पर पहुंचा। वहां से केमू की बस में बैठकर अपना टिकट कटवाया। थोड़ी देर में बस चलने लगी, काठगोदाम पहुंचते हुए पहाड़ शुरू हो गया। धीरे-धीरे बस आगे बढ़ती गई। सुंदर पहाड़ों के दर्शन होते गये।

दूर-दूर तक नजर दौड़ाई तो आस-पास कई गांव दिख रहे थे और कई घर ऐसे थे जो विरान थे। कई जगहों से टूट भी चुके थे। धीरे-धीरे बस खैरना पहुंची तो ड्राइवर ने खाना खाने के लिए एक ढाबे पर रोक दी। जहां अक्सर पहाड़ की बसे रूकती है। सभी ने खाना खाया। थोड़ा महंगा जैसा था पहाड़ के हिसाब से। करीब आधे घंटे के बाद बस चालक ने बस दौड़ानी शुरू कर दी। धीरे-धीरे आगे की ओर बढऩे लगे। जो कभी ग्वालों और घास लेने जंगल जाने वाली महिलाओं से भरे रहते थे पहाड़ के वह जंगल आज विरान नजर आ रहे थे। नदी का पानी कही-कही पर दिखाई दे रहा था। यहां का वातावरण देख मन में कई सवाल कौध रहे थे। अगर यहां ऐसा है तो ऊपर पहाड़ों का क्या हाल होगा। खैर इसी उधेड़बुन में बस आगे बढ़ती रही। मोबाइल में थोड़ा पहाड़ी गीतों का आनंद लेते-लेते कब अल्मोड़ा पहुंच गये पता ही नहीं चला।

ALMORA KMU STATION

अल्मोड़ा पहुंचते ही पुरानी यादें ताजा हो गई।क्योंकि अब शहरों में अक्सर लोगों से कहते थे कि मैं अल्मोड़ा जिले का हूं। ऐसे में अल्मोड़ा पहुंचते ही एक अपनेपन का अहसास होने लगा। बस अड्डे पर लगी दुकानें। इधर-उधर नजर घुमाओं तो वहीं सफेद दानों वाली बाल मिठाई। जिसके लिए अक्सर शहरों में भी अल्मोड़ा की चर्चाएं होती है। लेकिन जो टेस्ट खीम सिंह वाली बाल मिठाई में है वो अन्य दुकानों की बाल मिठाई में कहा। अल्मोड़ा तो अक्सर आना होता था। सारे तहसील के काम यहीं से होते थे लेकिन बाद में हमारी तहसील सोमेश्वर में ही बना दी गई। धीरे-धीरे अल्मोड़ा आना कम हो गया। थोड़ी देर रूकने के बाद बस फिर अपने गतंव्य की ओर निकल पड़ी। टेड़ी-मेड़ी सडक़ में रेंगती हुई बस अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही थी। पकौडिय़ों की खुशबू आने पर कोसी का असहास होने लगा। यहां भी भीड़ थी ।आने-जाने वाले, छोटी गाडिय़ों की जमात लगी थी। धीरे-धीरे आगे बढ़ते गये लेकिन एक बात थी जो भवाली से शुरू हो चुकी थी। अक्सर मकान रोड के किनारे बन चुके थे वह अभी कोसी तक जारी थी।


आगे बढ़ते-बढ़ते मकानों और रोड के किनारे दुकानों की संख्या मेंं इजाफा होता गया। मनान पहुंचने पर देखा वहां कई चीजें बदल चुकी है। कई मकानों का का डिजाइन और दुकानों की संख्या बढ़ गई है लेकिन बैंक उसी जगह में है जहां हमने पहले देखा था। आगे बढ़ते ही सडक़ किनारे मकानों की संख्या में इजाफा होता रहा। तो मन ही मन मैंने सोचा आहा अब बदल गया मेरा पहाड़। कई खेत बंजर नजर आने लगे। ऐसा लग रहा मानों कई वर्षों से उनमें हल ही न चला हो, कई गांव विरान थे। वहीं कई घरों में गाय,बैल और एकात भैंस भी नजर आयी लेकिन मजा वो पहले वाला नहीं था।

KOSHI RIVER ALMORA


सोमेश्वर बाजार पहुंचने पर पूरा नजारा ही बदल चुका था। सारी दुकानें नया रंगरूप ले चुकी थी। साई पुल से शुरू हुआ सोमेश्वर बाजार धौलाड़ तक फैल चुका था। वहीं मनसारी नाला की दुकानें पुल तक पहुंच चुकी थी। रानीखेत रोड की रौनक अलग ही थी। पल्यूड़ा से ऊपर थाने तक दुकाने की जमात थी। यहां उतरने के बाद देखा तो कई जाने-पहचाने चेहरे नजर आये लेकिन वर्षों से लौटने के बाद कई लोग तो खुद मेरी शक्ल भूल चुके थे और मेें लोगों की। ऐसे में मैं एक किनारे पर अपना बैग लेकर इधर-उधर देखता रहा। आने-जाने वालों स्टेट बैंक के आगे वह तिब्ब्ती समुदाय की महिलायें जिन्हें में बचपन में देखा करते थे आज भी चुडिय़ा बैच रही थी। उनके छोटे-छोटे फड़ आज भी रोड किनारे लगे है। बचपन में तो इतना ज्ञान था नहीं लेकिन आज देखकर लगा कि ये तो अतिक्रमण है जो रोड किनारे फड़ लगाकर दुकानें खोली है। उनमें से अधिकांश परिवार अब सोमेश्वर में बस चुके है। कई लोग अब यही के हो गये है। वहीं एक मीट-मांस की दुकानें मुस्लिम समुदाय के लोग चलाते है जो वर्षों से सोमेश्वर बाजार में यहीं काम करते आये है वह भी आज वहीं बस गये है। थाने खुलने के बाद सोमेश्वर की हालात में पहले से अब बहुत सुधार है।

SOMESHWAR ALMORA UTTARAKHAND

गांव में अक्सर पुलिस को देखते ही लोगों में एक अलग ही भय का माहौल रहता है जो आज भी जिंदा है। हमारा तो उनसे रोज का पाला पड़ता है यह झिझक हमारे अंदर कहा। सोमेश्वर बाजार के चारों ओर बसे गांव खाली हो चुके है जो घर आबाद है वहां अक्सर बुर्जुग रहते हैं। उनके बच्चे रोजगार के लिए शहरों में हैं। अक्सर फसलों से लहराने वाले खेतों में मकान और दुकान बन चुके हैं। आज हर चीज सोमेश्वर में उपलब्ध है जो शहरों में मिलता है लेकिन महंगाई चरम पर है। कोसी नदी में कही-कही पर पानी नजर आ रहा है अक्सर सुख चुकी नदी शायद ही जुलाई के महीने पर अपने असली रूप में आती होगी। नदीं में पत्थर ही पत्थर नजर आ रहे है वो भी बड़े-बड़े । छोटे पत्थर पूरी तरह से गायब है। हालांकि सडक़ें चमक चुकी है लेकिन उन सडक़ों पर दौडऩे वालों की कमी साफ झलकती हैं, क्योंकि अब मेरा पहाड़ बदल गया चुका है। जीप से घर की ओर निकल गया। खाड़ी से सडक़ किनारे शुरू हुए मकान और दुकान लोद तक खत्म होने का नाम नहीं ले रहे है। अक्सर लोगों ने ऊपर गांव छोडक़र सडक़ किनारे मकान और दुकान बना लिये है। जिन खेतों में कभी बच्चें किके्रट खेला करते थे आज उनमें दोमंजिला और तिमंजिला मकान खड़ा हो चुका है। गांव क ो जाने वाले रास्तों की हालात आज भी वहीं है जो जहां से टूटा वहीं रह गया। पुराने रास्ते आज भी नहीं सुधरे। हां खेत बंजर जरूर हो गये। गांव पहुंचने पर जो बातें पता चली उससे मेरी गलतफहमी दूर हो गई।

RANIKHET ROAD SOMESHWAR

अधिकांश युवा शहरों में पलायन कर चुका है। नई पीढ़ी नशे की ओर अग्रसर है। जिस जगह में कभी किक्रेट खेलते थे उसे पानी से भिगाकर साफ करते थे आज वह पूरी तरह बंजर है। घास देखकर ऐसा लगता है। उस जगह पर वर्षों से कोई पैदल भी न चला हो, यहां गांव-गांव में बीड़ी-तम्बांकू के साथ चरस और शराब का नशा जोरों पर है। अब तो गांव में ही शराब 24 घंटे उपलब्ध है। नई पीढ़ी नशे में बर्बाद है। हां हर हाथ मोबाइल जरूर है लेकिन कमाई वहीं है खर्चा रूपये आमदनी अठन्नी। अब तो बच्चे स्कूलों में मोबाइल भी ले जाते है। हमारे समय तो लोगों के घरों में लैडलाइन फोन होते थे। इसी में वह अपने को गांव का सबसे बड़ा शहशांह समझते थे लेकिन आज हर घर मोबाइल है। नई पीढ़ी अक्सर अवारा घूमते नजर आ रही है। पहले तो लडक़े बस स्कूल से छुट्टी का इंतजार करते थे और जुट जाते थे अपने काम पर कभी खेतों को आबाद करना तो कभी जंगल से घास और लकड़ी लाना। समय मिले तो किक्रेट में अपनी प्रतिभा भी दिखाते थे।

लेकिन आज वह सब खत्म है नई पीढ़ी को नशे से फुसरत हो तब कुछ हो। अब पास में एक-दूसरे के यहां बैठना और सब्जी की अदला-बदली तो दूर पड़ोसी-पड़ोसी को देखकर मुंह फेरता है। क्यों अब मेरा पहाड़ बदल चुका है। बस वीरान जंगल, बंजर खेत। हर घर गाय-भैस वाली वह रिवाज अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है, उसकी जगह दिल्ली से आने वाला नोवा दूध हर घर जरूर पहुंच रहा है। बैल भी अक्सर कम ही है जो खेत बचे है लोग उनमें हाथ वाले टैक्टर से जुताई कर रहे है। जिन सपनों को लेकर में गांव गया था। वहां जाकर वह पूरी तरह से धूमिल हो गये। इन्हीं सब बातों को लेकर मैं वापस शहर की ओर लौटा। बस की सीट पर बैठकर सोचता रहा आहा कितना बदल गया मेरा पहाड़।

लेखक पहाड़ प्रभात के संपादक है।

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संपादक - जीवन राज ईमेल - [email protected]

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